रोज़ा किसे कहते है

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*🥀 रोज़ा किसे कहते है 🥀*



*👉 पोस्ट- 5*

✏️ पिछली उम्मतों में रोज़े रखने की मुख़्तलिफ़ शक्लें और सूरतें रही है लेकिन शरिअते मोहम्मदी में रौज़ा दिन में सुबह सादिक से लेकर सूरज डूबने के वक़्त तक खाने पीने पेट या दिमाग में कोई गिजा या दवा दाखिल करने सोबत यानि हमबिस्तरी से खुद को रोकने का नाम है रोज़े में अल्लाह की इबादत की नियत करना भी जरूरी है यानि दिल से यह ख़्याल करना कि मेरा यह भूखा प्यासा रहना अल्लाह तआला की इबादत और उसको राजी करने के लिये है।
अगर कोई शख़्स पूरे एक दिन एक रात बेहोश या सोता रहा याशउसको मजबूरन दिन में भूखा प्यासा रहना पड़ा या कोई चीज़ खाने पीने की मिल न सकी या किसी ने पांव बाधकर डाल दिया और बर बिनाये मजबूरी कुछ खा पी ना सका तो यह पेट में कुछ जाना भूखा प्यासा रहना रोज़ा नहीं कहलायेगा क्योंकि दिल में रोज़े और इबादत की नियत नहीं है।
यहाँ यह भी जान लेना ज़रूरी है कि नियत नमाज़ की हो या रोज़े की वह दिल के इरादे का नाम है जुबान से कहना जरूरी नहीं है जुबान से कुछ भी न कहें सिर्फ दिल से इरादा कर ले कि मैं यह काम खुदा की इबादत और रज़ा के लिये कर रहा हूँ तो काफी है इसी को नियत कहते हैं नमाज़ व रोज़े की नियत के जो अल्फाज़ व कलमात राइज है यह सब हुज़ूर आपके सहाबा व ताबिईन के जमाने के बाद राइज हुये हैं और सिर्फ मुस्तब और अच्छे हैं जरूरी नहीं है आजकल कुछ लोग जबान से अदा किये जाने वाले नियत के अल्फाज़ को फर्ज व वाजिब और जरूरी सा समझने लगे हैं और किसी लफज़ में कोई मामूली उलटफेर या तबदीली आ जाये तो तुफान खड़ा कर देते हैं यह सब अनपढ़ और ना समझ लोग होते हैं मह नहीं जानते कि मामूली अल्फ़ाज़ की तबदीली या उलटफेर तो अपनी जगह नमाज़ रोज़े वगैरह की नियत में अगर जबान से कुछ भी न कहे तब भी कोई हर्ज नहीं है। हा जो लोग जबान से नियत के अल्फ़ाज़ अदा करने के बिल्कुल काइल ही नहीं इसे ना जाइज़ हराम व बिद्अत कहते हैं वह भी जिहालत में मुब्तिला हैं ज़बान से नियत के अल्फाज़ अदा करना जमाना-ए-रिसालत मआब में अगरचिह राइज न हो लेकिन साबित जरूर है इनको समझाने के लिये हम सिर्फ एक कुरआन की आयत और कुछ हदीसे रसूल लिख देते हैं।

(हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम) कुरआन करीम में है।
तुम जबान में कहो कि मेरी नमाज़ और हर किस्म की इबादते और मेरा मरना मेरा जीना सब अल्लाह के लिये। जो सारे जहानों का रब है।

*📚(पारा न. 8 स्कूल नं0 7)*

यानि जो काम अल्लाह की रज़ा और उसकी इबादत के तौर पर किया जाये उसका इजहार जबान से भी किया जा सकता है कि हम यह काम अल्लाह के लिये कर रहे हैं।

हदीसे पाक में है कि एक सहाबी-ए-रसूल हज़रत सय्यदना सअद बिन उबादह रदियल्लाहु अल्लाह तआला अन्हु की माँ का इन्तिकाल हुआ तो उन्होने हुज़ूर सल्लल्लाहो तआला अलैह वसल्लम से दरयाफ्त किया कि मेरी माँ का इन्तिकाल हुआ है उनकी रूह सवाब पहुँचाने के लिये कौन सा सदका बेहतर है हुज़ूर ने फरमाया " पानी बेहतर है " तो उन्होंने एक कुँआ खुदवा दिया और उसके पास खड़े होकर जबान से यह अल्फा कहे।

यह मेरी माँ के लिये है।
यानि इससे जो लोग फायदा उठाये उसका सबाब मेरी माँ को पहुँचता रहे 

*📚 (मिस्कात सफा 169)*

तो बात साफ है कि जुबान से नियत के अल्फाज़ अदा करना अगर ना जाइज होता तो हज़रत सअद कुँए के पास खड़े होकर मुंह से यह न कहते कि "यह कुआँ मेरी माँ के लिये है। क्योंकि कुआँ माँ क ईसाले सवाब की नियत ही से खुदवाया था पता चला कि किसी कारे खैर के करने के लिये दिल के इरादे के साथ जुबान से कह लेने में भी कोई हर्ज नहीं है। इसके अलावा एक और हदीसे रसूले पाक सल्लल्लाहो तआला अलैह वसल्लम ने कुर्बानी के:दो मेण्डे सींग वाले चितकबरे खस्सीं किये हुये ज़िबह किये और जिबह के वक़्त कुर्बानी और जिबह की दुआ पड़ने के बाद फ़रमाया।

*हदीस:-* यह मेरी तरफ से और मेरी उम्मत के उन लोगों की तरफ से जिन्होंने कुर्बानी नहीं की 

*📚(मिस्कात सफा 128)*

अल्लाह ताअला दिल के इरादों से खूब वाकिफ हैं इसके बावजूद सरकार को जबान से यह फरमाना कि यह कुर्बानी मेरी और मेरी उम्मत के उन लोगों की तरफ से है जो कुर्बानी न कर सकें इससे साफ पता चला है कि किसी न किसी शक्ल में जबान से अल्फ़ाज़े नियत की अदायगी पैगम्बरे इस्लाम और आपके सहाबा से साबित है फिर इसकी एक दम बिदअत और नाजाइज़ कह देना मज़हब से नावाकिफी है।

*📚रमज़ान का तोहफ़ा सफहा 6,7,8,9*

*✍️मौलाना ततहीर अहमद रज़वी बरेलवी*
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*अगली पोस्ट*



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*🏁 मसलके आला हजरत 🔴*

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